मियाँ गुमसुम और बत्तो रानी
अकसर कहानी से शीर्षक निकलते हैं मगर आज की कहानी शीर्षक से आती है। ये जुमला "मियाँ गुमसुम और बत्तो रानी" मुझे आज यूँ ही फ़ेसबुक की एक पोस्ट में दिख गया और किसी अपने की जिंदगी आँखों के सामने तैर गई। बस फिर क्या था..... कहने को किस्सा भी था और वो भी शीर्षक के साथ और कुछ खाली वक्त भी.....सो पेश है....."मियाँ गुमसुम और बत्तो रानी" तो बात शुरु होती है मोहल्ले की उस छत से जहाँ धूप कुछ ज्यादा आया करती थी। ठंड ज़ोरों पर थी और मोहल्ले की वो छत सबकी नियत बेइमान करती थी। सुबह से शाम तक जिस एक छत पर सूरज मेहऱबान रहा करता वो छत वर्मा जी की थी और इस बात का फ़क्र उनके चेहरे पर साफ़ दिखता था। दिन का जितना वक्त घर पर रहते वो सारा वर्मा और वर्माइन का छत पर बैठे धूप सेंकते बीतता। और छुट्टी के दिन तो यूँ लगता कि दोनों छत से चिपके ही हों। पुरानी दिल्ली की छतें थीं सो आपस में ताने-बाने सी जुड़ीं थीं। चाहें तो किसी भी छत पर जा सकते थे, वर्मा जी की छत पर भी, मगर मैं चार घरों के फासले से अपनी छत पर खड़ी वर्मा - वर्माइन को देखा करती। एक दिलचस्प बात थी उस नज़ारे की... एक ऐसी बात जो अमू...