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Showing posts from November, 2018

मियाँ गुमसुम और बत्तो रानी

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अकसर कहानी से शीर्षक निकलते हैं मगर आज की कहानी शीर्षक से आती है। ये जुमला "मियाँ गुमसुम और बत्तो रानी" मुझे आज यूँ ही फ़ेसबुक की एक पोस्ट में दिख गया और किसी अपने की जिंदगी आँखों के सामने तैर गई। बस फिर क्या था..... कहने को किस्सा भी था और वो भी शीर्षक के साथ और कुछ खाली वक्त भी.....सो पेश है....."मियाँ गुमसुम और बत्तो रानी" तो बात शुरु होती है मोहल्ले की उस छत से जहाँ धूप कुछ ज्यादा आया करती थी। ठंड ज़ोरों पर थी और मोहल्ले की वो छत सबकी नियत बेइमान करती थी। सुबह से शाम तक जिस एक छत पर सूरज मेहऱबान रहा करता वो छत वर्मा जी की थी और इस बात का फ़क्र उनके चेहरे पर साफ़ दिखता था। दिन का जितना वक्त घर पर रहते वो सारा वर्मा और वर्माइन का छत पर बैठे धूप सेंकते बीतता। और छुट्टी के दिन तो यूँ लगता कि दोनों छत से चिपके ही हों। पुरानी दिल्ली की छतें थीं सो आपस में ताने-बाने सी जुड़ीं थीं। चाहें तो किसी भी छत पर जा सकते थे, वर्मा जी की छत पर भी, मगर मैं चार घरों के फासले से अपनी छत पर खड़ी वर्मा - वर्माइन को देखा करती। एक दिलचस्प बात थी उस नज़ारे की... एक ऐसी बात जो अमू...

फुर्सतें

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आज किचन में मन ही नहीं लग रहा..... कभी कुछ गिर जाता, तो कभी छूट जाता, कभी मसाला जल जाता तो कभी चाकू हाथ को लग जाता.... एक के बाद एक गलतियाँ हो रहीं थी... कनिका हताश हो कर बैठ गयी... मगर उसे इसकी मोहलत नहीं थी.... सबका टिफ़िन तैयार करना था और देर हो रही थी। कनिका ने खुद को संभाला और एकाग्र हो कर फिर काम में लग गयी और खुद से वादा किया की अपनी इस परेशानी के लिए खुद को वक़्त ज़रूर देगी मगर इस सब से निपटने के बाद। पिछले एक हफ्ते से यही हाल था... कनिका सारा वक़्त खोयी सी रहती थी। यूँ लगता था अतीत की गलियों में घूम रही हो... न जाने क्या क्या याद आता उसे... न जाने किस किस से टकरा जाती उन संकरी यादों की गलियों में। यूँ लगता सारा दिन किसी आत्ममंथन में हो, जैसे जीने की वजह तलाश रही हो। उसके हाथ तो कढ़ाई में सब्ज़ी चला रहे थे मगर अचानक यूँ लगा उसने धीमे से आके छुआ हो.... यादों के गलियारे से जतिन यका तक आँखों के सामने आके खड़ा हो गया... वही मुस्कुराती आँखें वही दिल लुभाता चेहरा... हौले से कनिका का हाथ थाम कर उसे बीते कल की यादों में लेकर जाने को ही था कि पलकों को फुरती...