रसोई जैसे घुम रही थी। चारों तरफ काम ही काम नज़र आ रहे थे। सबको ही जल्दी थी.... पति को ऑफिस की, बच्चों को स्कूल की, सासूमाँ को मंदिर की, ससुरजी को चाय और अख़बार की, कामवाली बाई को अगले घर जाने की, और इस कमबख़्त दूध को इसी पल उफनने की। ऐसा लग रहा था सब हाथों से निकल रहा है... और हाथ से याद आया... उफ्फ! ये मेरा घायल हाथ।
अरे! तभी मैं यूँ तीतर-बीतर हो रही हूँ... सुबह की ये रसोई दस हाथों से भी नहीं सभंलती.. और मैं एक हाथ से सब करने में लगी थी.... कैसे?? दो पल रुक कर अपनी कलाई को देखा... दर्द जैसे कौंधता सा आया और अपनी मौज़ूदगी मेरी आँखों में दर्ज कर गया। ये चोट ..(इसका किस्सा किसी और दिन) ये दर्द...और ये रसोई...। किस्सों में सुना है... ऐसी मस़रूफी की मरने की फ़ुरसत नहीं। आज मैं भी एक किस्सा बन गई... ऐसी मस़रूफी कि दर्द की मोहलत नहीं। और मेरा किस्सा भी अतरंगी... मेरे अपने मेरे दर्द से भी अनजान और मेरी मस़रूफी से भी...अरे करती क्या हो दिन भर।
जी चाहा ....  बस मुठ्ठी भींच कर रह गई.. और मेरी कलाई दर्द से कसमसा गई। आँखें धुंधलाईं पर दिमाग खुल गया। आज से सब छोड़ा...पहले मैं।
मेरे दर्द की कदर मैं खुद न करूँ तो कोई और क्या करेगा...
पुनश्च : अपने दर्द को खुद इतना नज़रंदाज़ न करें कि सभी उस भूल जाएं। खुद से प्यार और खुद की परवाह करें।
WE CAN HELP
Physical therapy and fitness services

Comments

Popular posts from this blog

मियाँ गुमसुम और बत्तो रानी

kanch ka fuldaan aur kagaz ke ful