जब शामें भी हुआ करतीं थीं!
अब तो सुबह के बाद,
सीधे रात ही होती है!!
और उन शामों में हुआ करते थे बचपन के खेल... वो आंख मिचौली, पकड़म पकड़ाई, गिल्ली डंडा, चार कोना......... मासूम बचपन के मासूम खेल..... शाम दोस्त भी थी और दोस्तों से मिलने का सबब भी... जान के छल्लों से दोस्त और उन दोस्तों की तफरी। वक़्त कम सा लगता था और खेल लम्बे। वो ज़माना ही कुछ और था। और ये ज़माना भी कुछ और है। चाय की चुस्की लेते हुए मैं यादों के रूमानी सफर पे निकल पड़ी थी। उफ़ ये यादें!! यका यक वर्तमान में लौट कर आना मुझे रास न आया। जिन खेल तमाशों के झरोखों से मैं झाँक रही थी वहाँ से यूँ नज़र फेर के ये नए ज़माने के नए खेल देखना मुझे दुखी सा कर गया। क्या जीवन है ये मेरे बच्चो का। इनकी न शाम होती है न दोस्त आते हैं... न खेल होते हैं न तफरी होती है। बचपन तो ये भी है, पर कुछ हट के... दोस्त तो अब भी हैं पर ऑनलाइन... खेल तो अब भी हैं पर प्ले स्टेशन में.... मस्ती तो अब भी है पर यूट्यूब के विडिओ में... तफरी तो अब भी है पर फेसबुक पे... ग़प्पें तो अब भी हैं पर व्हाट्सप्प पे... आजा देख मेरे पास क्या है का उत्साह तो अब भी है पर इंस्टाग्राम पे... सारे मोहल्ले की खबरीगिरी अब भी है पर ट्विटर पे...
वक़्त और हालात बहुत बदल से गए हैं... हाथों में अब वो हाथों वाली दोस्ती की जगह मोबाइल ने ले ली है।
बच्चों का हर खेल मोबाइल से शुरू और मोबाइल पे ही खत्म है... सारी दुनिया मनो मोबाइल में सिमटी हो और बचपन मोबाइल में कैद। चिंतित हूँ मैं बच्चो को ले कर। मोबाइल इन्हे जीवन से दूर कर रहा है। कभी ना लौट कर आने वाले बचपन से दूर कर रहा है। बचपन के खेल, वो सैर सपाटे न जाने कहा खो गए... और साथ में खो गयी वो चहलकदमी..... खो गयी वो शरारत... सारा दिन फ़ोन की ग़ुलामी से बेबस ये बच्चे उस धमाचौकड़ी से मेहरूम हैं जो हमारे वक़्त की शान हुआ करती थी.... खेल कूद नहीं तो, शरीर में गति नहीं और परिणाम है बच्चों में बढ़ता मोटापा, बीमारियां, शिथिलता। क्या आपका जी नहीं करता अपने मोबाइल में उलझे बच्चों को झकझोंर कर आज़ाद करने का। क्या आप नहीं सोचतीं की ये बच्चे भी वो बचपन जी लें जो हमने जिया। कुछ तो ऐसा हो जो इन बच्चो की उँगलियों की किटपिट से ज्यादा कसरत करवाए।
पुनश्च :- बच्चों में फिजिकल एक्टिविटी को बढ़ावा दें। ये सिर्फ उनके शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक विकास के लिए भी ज़रूरी है....
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