kanch ka fuldaan aur kagaz ke ful

हर घर में कभी न कभी ये बात ज़रूर होती है... रिश्ते कांच से होते हैं, इन्हे संभाल कर रखना पड़ता है क्यूंकि अगर ये टूट गए तो फिर नहीं जुड़ते, बस दरारें रह जातीं हैं। लड़कियों को इन बातों से सनी मिटटी से ही बनाया जाता है। रिश्ते, पति, ससुराल... इन सब को संजोने की हिदायतें हमें पानी में घोल कर पिलाईं जातीं हैं। एक जिम्मेदारी हमारे रगों में दौड़ती है कि सब कुछ संजो कर रखना हैं... और शादी के वक़्त जब हमें कांच के फूलदान जैसी नयी सी ज़िन्दगी दे दी जाती है तो ये ज़िम्मेदारी साँसों पर दम धरती है। बस यही है आज की कहानी.....
कांच का फूलदान.........
अंतिमा के लिए ज़िन्दगी शुरू ही हुयी थी, कॉलेज ख़तम हुआ और अब नयी राहों की तलाश थी। आज नया सवेरा था, यूँ कि आज से नौकरी की खोज शुरू होनी थी और अंतिमा बड़ी ही फुर्ती से त्यार हो रही थी। कमरे से नीचे आयी तो माँ ने कहा..." अब कहा चली बेटी, कॉलेज तो खतम हो गया न? " अंतिमा अपना जवाब पूरा भी न कर पायी थी और माँ ने उसे शादी का तर्क दे कर चुप करा दिया। अंतिमा चुप रह गयी और माँ को मनाने की तरकीब और तर्क-वितर्क की उथल पुथल में गुम हो गयी। उसने सोचा था कि कल माँ को मना  लेगी और आज का अधूरा काम कल करेगी। मगर वो कल आया ही नहीं। अंतिमा के उथल पुथम में ही शेहनाई बजाती बारात आ खड़ी हो गयी। अंतिमा की शादी हो गयी और कांच का फूलदान लिए वो ससुराल आ गयी। अंतिमा के पति विभाकर अच्छे इंसान थे मगर कुछ रूढ़िवादी थे। उन्होंने अंतिमा को जैसे कैद कर रखा था, न कहीं आना न जाना, न किसी से मिलना, अंतिमा की ज़िन्दगी विभाकर के घर की चार दीवारी में दफ़न थी। नौकरी के ख़्वाब तो दूर उसे अपनी मर्ज़ी से कुछ भी करने की आज़ादी नहीं थी।
अंतिमा पल पल घुट रही थी मगर कांच का फूलदान न टूटे इस लिए ज़िन्दगी से झूझ रही थी।  अक्सर हम यही करते हैं, रिश्ता न टूटे बस इसीलिए हम निभाते जाते हैं... लोग क्या कहेंगे... माँ बाबा की परवरिश पर सवाल उठाएंगे... ये कांच का फूलदान है... टूट गया तो जुड़ नहीं सकता... बस दरारें रह जाएँगी जो बाहर वालों के लिए झरोखे होंगे हमारी ज़िन्दगी में झाँकने के लिए... बस इसी डर से ज़हर पीते जाते हैं... बोझिल रिश्ते जीते जाते हैं।
अंतिमा कौन अलग थी... भीड़ का हिस्सा थी सो भीड़ सी चलती रही... विभाकर की नज़रबंदी में जीती रही। बस किसी तरह खुद को व्यस्त रखती... कुछ शौख अभी ज़िंदा थे तो उनको सींचती।
कागज़ के फूल बनाने का बड़ा शौक था। घर का एक कमरा उसने अपनी वर्कशॉप बना लिया था। कागज़ की कतरनों को सुंदर फूलों का रूप देती वो दिन का ज्यादातर वक़्त वही बिताती। नौकरोँ से कुछ रंग मंगवा लिए थे सो अखबार और मैगज़ीन की कतरनों को रंग कर बड़े सुन्दर फूल बनाती और जीवन का कांच का फूलदान उन फूलों से सजाती।
एक शाम वर्कशॉप में काम कर रही थी, आज बैंगनी फूल बना रही थी, पूरे कमरे में रंग और कागज़ थे मगर अंतिमा अपने काम में मशगूल थी। अचानक एक बॉल आई और कुछ रंग की शीशियां बिखर गयीं।  खीज़ कर अंतिमा ने गेंद को उठाया और खिड़की की तरफ चल दी। गुस्सा तो बहुत थी मगर दो छोटी सी बच्चियाँ खिड़की पर खड़ी उसके फूलों को निहार रहीं थीं तो अंतिमा उनसे कुछ कह न सकी। धीमे से धमकाना ही चाहती थी कि बच्चियाँ बोल पडी़.... "आंटी ये फूल तो बहुत सुंदर हैं, आपने बनाए?" अंतिमा ने हाँ में सर हीला दिया तो दोनों नन्हीं लड़कियाँ चहक पड़ीं, "आंटी हमें भी सीखा दो।" अंतिमा कुछ न कह पाई.... दोनों लड़कियाँ "कल मम्मा को लेकर आएंगे" चिल्लाती हुई हवा हो गईं। अंतिमा चंद पल यूँ ही बैठी सोचती रही फिर अपने काम में लग गई। उसे कब पता था ये मासूम मुलाकात उसके जीवन में तूफ़ान लाने वाली थी।
और अगले ही दिन तूफ़ान ने दस्तक दी। दरवाज़े की घंटी बजी और विभाकर ने दरवाज़ा खोला। कुछ औरतें और बच्चे अंतिमा को पूछ रहे थे। विभाकर ने बड़े प्रशनवाचक लहज़े आ कर अंतिमा को सूचित किया। विभाकर खामोश खड़े घर आये मेहमानों और अंतिमा की सारी बातें सुन रहे थे। "अंतिमा ने बच्चों को कागज़ के फूल बनाना सीखना शुरू कर दिया " उसे इस बात की भनक भी नहीं थी की अंतिमा ने उसकी जानकारी के बना कोई क्लास चलना शुरू कर दिया है। विभाकर सर से पैर तक तमतमा गए। उन्होंने आगे की कोई बात नहीं सुनी और खिसिया कर अपने कमरे में आ कर बैठ गए।
यहाँ अंतिमा ने उन औरतों को मना किया और बच्चों को कोई ग़लतफहमी हुयी होगी कह कर बात टाल दी। उसने फिर चंद पल सोचा और आकर रसोई में विभाकर की चाय  बनाने में जुट गयी। इधर अंतिमा चाय का प्याला लिए पहुंची उधर विभाकर क्रोधिल संवाद की मन ही मन रचना कर रहे थे। अंतिमा को देखते ही बिफर पड़े और बोले, "तुमने आर्ट क्लास शुरू कर दी, चार लोग घर आएंगे, सारे मोहल्ले में शोर होगा, तुम्हारा ये तमाशा हमें बिलकुल पसंद नहीं आया। अभी बताये देते हैं ये सब बंद करो अंतिमा.. हमारे यहाँ औरतें काम नहीं करतीं और ये चुटपुटिया काम तो बिलकुल नहीं। आज अभी ये सब बंद करो। " अपनी बात पूरी करके विभाकर चले गए और अंतिमा ठगी सी खड़ी रह गयी। बड़े आहिस्ता से वहीँ ज़मीं पर बैठ गई। यूँ लगा वाकई मेँ हाथों में काँच का फूलदान लिए हो वो। अचानक उसकी लय इतनी धीमी और अहतियातन  हो गयी मानो हाथों में काँच का फूलदान लिए बर्फीली फिसलन भरी ज़मीं पर चल रही हो और तेज़ तूफ़ान ऑंखें धुंधलाए हो। ये क्या किया विभाकर ने, जिन अरमानों को वो दफ़न कर चुकी थी उनका इलज़ाम लगा गए... और वो भी इस बेकद्री से। काँच का फूलदान जो सालों से सूना था उसमे अंतिमा ने कागज़ के फूल सजा लिए थे आज उसे भी कुचल कर निकल गए विभाकर। अब रह ही क्या गया था इस ख़ाली से काँच का फूलदान में, रिश्ता टूटने का डर.... बस और कुछ नहीं। अब अंतिमा फुर्ती से उठी जैसे अब काँच का फूलदान टूटने का ख़ौफ़ न हो। उसने अपना सामान उठाया, सारे कागज़.... सारे रंग.... और घर के बाहर बागीचे में जा बैठी। अपनी सारी कल्पना लगा कर एक बैनर त्यार किया।
बस यही थी अंतिमा के लिए नयी शुरुआत। अब रोज़ नए बच्चे आने लगे और अंतिमा विभाकर की कैदी से आर्ट टीचर बन गयी। मगर ये सफर आसान नहीं थी इसके लिए अंतिमा को वो काँच का फूलदान तोडना पड़ा।
नहीं..... अंतिमा ने विभाकर से रिश्ता नहीं तोडा बस वो काँच का फूलदान तोड़ दिया जिसमे उसने सालों से अपना रिश्ता बंद कर रखा था। बैनर लगाना अंतिमा का पहला कदमा था विभाकर को अपनी शक्शियत से वाकिफ़ कराने की ओर।और अपने फैसले पर कायम रहना संकेत था कि अब अंतिमा किसी के रोके नहीं रुकेगी। विभाकर का क्रोध प्रचंड अग्नि से मंद- मंद धधकते कोयले की तरफ पतन तो किया मगर इसमें भी लम्बा समय लगा। अंकिमा ने विभाकर को मनाने के कई असफल प्रयास किए और हर बार खुद को यही समझाया कि वक्त हर ज़ख्म भर देगा।
अंतिमा अपनी क्लास के साथ मशगूल रहती और पल पल विभाकर की रूठी आँखों को निहारती रहती। उधर विभाकर नाराज़ तो थे मगर कुछ अचम्भित भी। अंतिमा का ये काम उसे खुश रखता था....इतना खुश जितना उसे विभाकर ने कभी नहीं देखा था। उसकी खुशी घर के हर कोने को महका रही थी और विभाकर भी इससे अछूते नहीं थे। यूँ लगता था कि ये सब उनके जीवन की ऐसी कमी पूरी कर रहा था जिसका उन्हें पता भी नहीं था। गुस्सा यदा-कदा प्यार में बदलता पर वे अपनी ही पत्नी से कुछ कह नहीं पाते। यानि विभाकर समझने लगे थे अंतिमा की खुशी उनकी और उनके घर की खुशी के लिए कितनी ज़रूरी थी।
करीब से देखें तो असल में वो रिश्ता काँच का फूलदान नहीं होता उससे जुडी हमारी मनःस्तिथि काँच का फूलदान होती है। हम जिस डर से अपने रिश्ते सींचते हैं वो डर असल में ज़हर का काम करता है। हम जिस चीज़ को टूटने से बचा रहे होते हैं वो डर होता है। क्या ये कहानी पढ़ते वक़्त क्या कभी आपने सोचा की अगर अंतिमा ने अपने सोच और अपनी इच्छा विभाकर के सामने रखी होती तो क्या होता... ज़ाहिर है मेरी कहानी इतनी भावनात्मक नहीं होती मगर वो दूसरी बात है। अंतिमा की मनःस्तिथि जान कर विभाकर नाराज़ होते... ज़रूर होते, वो तो तब भी हुए थे जिस शाम अंतिमा ने घर के बहर अपनी आर्ट क्लास का बैनर लगा दिया था। मगर वो वक़्त तो बचता जो अंतिमा ने घुट कर  और विभाकर ने झूठ में जी कर बिताया। इंसान अपनी फ़ितरत नहीं छुपा सकता, हम खुद को ढालने की बहुत कोशिश करते हैं, अंतिमा ने भी की मगर सांचे में ढली मिटटी बर्तन बनाती है और खुले ज़मीं की मिटटी उपजाऊ होती है।
रिश्ते काँच के हो तो टूट ही जायेंगे मगर काँच के डिब्बों में बंद रहें तो घुट के मर जायेंगे।  तो असल में जो शादी के वक़्त हम लड़कियों को थमाया जाता है वो रिश्ता नहीं रिश्ता टूटने का डर होता है।  और हम इस डर से ही लड़ते रह जाते हैं रिश्ता तो बना ही नहीं पाते। तो कुछ पुरानी प्रथाएं आज भी तोड़ते हैं ... कुछ काँच का फूलदान फिर चूर चूर करते हैं..... डर और नकारात्मक सोच के काँच का फूलदान तोड़ के नए पौधे लगाते हैं... सबसे पहले अपनी खुशी,  फिर बाकी सारी दुनिया क्योंकि हमारी खुशी सारा घर रौशन कर सकती है। रिश्ते न टूटें इस मकसद से नहीं जोड़े जाते..... पहले रिश्ते जोड़ते हैं... फिर उन्हें टूटने से बचाएंगे... अपनी सोच और ख्वाहिशें सामने रखकर ही नए संबंधों के तार जोड़ें... खुद को मार के नए रिश्ते नहीं बनेंगे।  याद रखें....
 "सांचे में ढली मिटटी बर्तन बनाती है और खुले ज़मीं की मिटटी उपजाऊ होती है"
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