
नन्ही हथेली की थपकी और मासूम आवाज़ "उठी माँ.... " भीनी भीनी सी महसूस तो हो रही थी मगर दवाओं का असर इतना गहरा था कि निधि अपनी तीन साल की बिटिया की दस्तकें नहीं समझ पा ही थी। माइग्रेन के दर्द की दवाइयाँ उसे बेहोश सा किये थीं और बड़ी कोशिशों के बाद जब उसने आँखें खोलीं तो छोटी सी माही उसके सिरहाने बैठी उसे उठाने की कोशिश कर रही थी.... "उठी माँ...." उसकी टूटी फूटी बोली ने निधि के चेहरे पर मुस्कान ला दी और अब सर कुछ हल्का सा लगने लगा था। तभी समर कमरे में आये और निधि का हाल पूछने लगे। निधि कल शाम से माइग्रेन के दर्द से बेहाल थी और समर लगभग पूरी निष्ठा से उसकी देख भाल में लगे थे। हाथ में जूस का गिलास लिए जिरह कर रहे थे और निधि अनमनी सी उसकी बात ना मानने की कोशिश कर रही थी। जूस पी कर निधि की आँखें और दिमाग दोनों कुछ और खुल गए और अब नन्हीं माही की खुराफातें निधि का ध्यान आकर्षित करने लगी। "ढूंढी माँ.... छुपी माँ..." निधि मुस्कुराये बिना न रह सकी, ये माही की अपनी भाषा है, और इसका मतलब है छुपन छुपाई का खेल। वक्त का ख़्याल आया...माही स्कूल से भी आ गई, ना जाने कितनी देर वो बेहोश थी। उसने माही से स्कूल के बारे में पूछा तो समर ने बताया कि माही स्कूल गई ही नहीं। निधि ने प्रश्नवाचक नज़रों से समर का देखा तो बच्चों की सी मासूमियत से जवाब मिलता है, "समझ में ही नहीं आया, उपर से ये तुम्हारी लाडली किसी से तैयार तो होती नहीं ।" निधि का अचरज नाराज़गी में बदला, "समझना क्या था, यूनिफार्म पहना कर भेजना था बस, इतना भी न कर सके तुम?" अब नाराज़ होने की बारी समर की थी, "बच्ची है निधि, नरसरी में है कोई कल्कटरी की पढ़ाई नहीं कर रही है कि एक दिन की छुट्टी से उसका भारी नुकसान हो गया हो। छोटी छोटी बातों पर इतना तर्क वितर्क करती बस यही कारण है तुम्हारे माईग्रेन का"। अपनी बात पूरी कर के समर कमरे से चले गए और निधि बहुत कुछ कहना चाहती थी मगर सिरदर्द ने रोक लिया। वैसे भी समर अब कुछ नहीं सुनते। निधि की नाराज़गी अब गुस्से में बदल गई। बात माही के स्कूल की छुट्टी की नहीं थी, बात जिम्मेदारी की थी। निधि के दिन की धुरी माही थी। सुबह उठने से लेकर रात को बिस्तर पाने तक निधि का पूरा दिन माही के क्रिया कलापों के हिसाब से निरधारित था। माही की हर चीज़, हर बात निधि पर निर्भर थी, इस बात से निधि को कोई गुरेज़ नहीं था मगर माही की सारी जिम्मेदारी निधि पर थी ये बात गलत थी। समर या घर के किसी और सदस्य ने कभी भी माही की देखभाल में दिलचस्पी नहीं ली, यहाँ तक कि माही को स्कूल के लिए कैसे तैयार करना है इस बात का किसी को कोई आयडिया ही नहीं। माही के स्कूल की आज की छुट्टी इस वज़ह से नहीं हुई कि निधि बीमार थी, पर इस लिए हुई कि समर ने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई। और इस वाक्य में छुट्टी शब्द से कहीं ज्यादा अहमियत जिम्मेदारी शब्द की है। निधि अकसर समर से कहती, "एक दिन अगर मैं ना रही तो माही को कौन सम्भालेगा" और इस बात पर हमेशा समर यही कहते कि, "तुम कहाँ जा रही हो?" एक कटाक्ष की हंसी निधि के होठों पर तैर गयी। वो समर से आज कुछ बातें साझा करना चाहती थी.... जिंदगी के पल किसने देखे, हो सकता है मैं हो कर भी न रहुँ... जैसे आज। समर को समझाना मगर इतना आसान नहीं था। और ये बात समझाने की नहीं समझने की है। माही निधि समर दोनों की जिम्मेदारी है और उसे दोनों को साथ मिल कर निभाना है। ये सब अगर निधि समर से कहे भी तो, समर का कड़वा सा जवाब यही होगा कि, "काम धंधा छोड़ कर घर बैठ जाऊँ और बच्चा सम्भालूं, तुम से तो मैं नौकरी की उम्मीद नहीं करता तो कमसकम बच्चे की देखभाल तो कर ही सकती हो।" निधि को समर की बातों की इतनी आदत थी कि वो सारा संवाद खुद ही कल्पना कर सकती थी। कुछ गुस्सा, कुछ बेबसी से निधि की आँखें नम हो गई।

ये कहानी किसी न किसी रंग में रंग कर हमारी जिंदगी में कहीं न कहीं ज़रूर घुलती है। पता नहीं ये कैसे बने मगर समाज के नियम यही हैं की घर परिवार की ज़िम्मेदारी घर की औरत की होती है और अमूमन यही होता है कि इस ज़िम्मेदारी के निभान में किसी भी सहयोग की उम्मीद किसी से नहीं की जा सकती। अफ़सोस की बात ये है कि इस नियम में वक़्त के साथ कोई बदलाव नहीं आ रहा। हर घर मैं किसी सुबह ये मसला उठता होगा मगर बिना किसी समाधान के शाम तक दफ़न भी हो जाता होगा। हर औरत चाहे वो काम काज़ी हो या गृहस्तन अपने कामों को घर के मर्दों की नज़र में लाने की कोशिश ज़रूर करती है..... समाज के नियम में लचीलापन लाने की कोशिश करती है.... मर्दों की सोच में बदलाव लाने की कोशिश करती है.... मगर ये बदलाव हमसे नहीं मर्दों से खुद ही होगा। जब तक वे फिप्टि परसेंट पार्टनरशिप की अहमियत नहीं समझेंगे और हर ज़िम्मेदारी में हाथ नहीं बटायेंगे तब तक ये सब यूँ ही चलता रहेगा... हर निधि यूँ ही ऑंखें बिगोती रहेगी और हर माही अपनी माँ के जीवन की धुरी बनी रहेगी।
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