EK Faisla - jo ek maa ka hq hai

एक तूफ़ान था शुभा की दिल दिमाग में.... नाराज़ थी वो...  बहुत नाराज़। यूँ तो बात कुछ भी नहीं थी और बहुत कुछ भी। आज फिर साल के उन चंद दिनों में से एक दिन था जब शुभा के भीतर का ज्वालामुखी उफान पर था। घर में एक भयानक सी ख़ामोशी थी। ऐसे दिनों के अमूमन दो परिणाम हुआ करते थे.... एक, ज्वालामुखी का फटना और सब पर गुबार निकलना या दूसरा, लावा का भीतर भीतर खौलना और चंद दिन सबको परोक्ष रूप से तपा कर धीमे धीमे शांत और तटस्थ हो जाना। घर के लोग ज्वालामुखी के उफान का कारण भले ही न जानते हों मगर सबको पता था कि अब सबको जलना था.... प्रत्यक्ष या परोक्ष। और कारण का तो ऐसा है न कि, कोई जनता ही नहीं, कोई जानना नहीं चाहता, कोई जो जानता है वो समझता नहीं और कोई जो समझ सकता है वो जानता नहीं। कुल मिलाकर सबको पता था कि शुभा नाराज़ है बस कोई भी इस बारे में कुछ कर नहीं कर सकता था। और करता भी क्यों समस्या तो शुभा की थी...उसका निजी मसला, जैसा जतिन, उसके पति कहते थे। सो हुआ यूँ कि आज घर में एक पूजा थी और परिवार के कुछ रिश्तेदार आने थे। शुभा पहले से ही जानती थी की आज का मुद्दा क्या होना था... "बस अब एक बेटा हो जाए तो बहु निश्चिन्त हो जाये और कल्याणी भाभी (शुभा की सास) का बुढ़ापा सफल हो जाये" हमेशा का यही था जो मिलता शुभा से यही कहता तो अब उसे भी आदत सी हो गयी थी। मगर क्या है न, घर में जब रिश्तेदारों का जमावड़ा होता है तो इस बात की frequency और intensity दोनों ही बढ़ जाती हैं। इसीलिए शुभा पूजा की तैयारी के साथ साथ खुद को भी तैयार कर रही थी कि इस दूसरे बच्चे और स्पष्ट तौर पर लड़के की होने वाली फरमाइशों के दौर से खुद को खीजे बिना निकल सके। जैसे ही लोग आने लगे तब तक शुभा पूरी तरह तैयार थी सज कर और संभल कर... होने वाली घटना के लिए बिलकुल दुरुस्त...... मगर घटना कुछ ज्यादा ही गंभीर और शुभा की तैयारी से परे होने वाली थी इस बात का उसे अंदाज़ा नहीं था। 




पारिवारिक पूजा थी सो बस घर की औरतें ही थी, पंडित जी भी नहीं थे। बस क्या था, चार औरतों का जमावड़ा और बातों का सिलसिला। और बातों बातों में वो बात भी निकली जिसके लिए शुभा सांसें रोके बैठी थी। प्रभा मौसी जी अपने आदतन तानेबाजी की लहज़े में बोलीं, "अब तो बिटिया बड़ी हो गयी अब तो एक बेटा कर ले शुभा, कब तक कल्याणी जीजी को तरसाएगी?" "हाँ, सही तो कह रहीं हैं प्रभा जी, अब तो हमसे कल्याणी भाभी का दुःख देखा नहीं जाता।", बड़ी ही ज़ाहिर चिंता से मीरा चाची बोलीं। शुभा बस सुन रही थी, और सुन कर शर्मा देती। कोई ज़्यादा ज़ोर दे कर कहता तो सर हिला देती या "जी" कह कर रह जाती। शुभा तो खुद को बिलकुल दुरुस्त कर के बैठी थी... उसे पता था कि, ये होना ही है... कुछ तो लोग कहेंगे..लोगों का काम है कहना। पूजा की विधि भी चल रही थी और बेटे की फरमाईशें भी ज़ोर पकड़ रहीं थीं। "ये तो आज कल का चलन हो गया है, पहले शादी के बात वक़्त चाहिए फिर दो बच्चों के बीच वक़्त चाहिए, हमारे ज़माने में तो सब झटपट था"... बड़ी देर से चुप बैठी मंझली दादी बोली ही पड़ीं और सब ठहाके लगा के हंस पड़े, मगर तीखी मिर्ची सुभद्रा बुआ जी ने लाल मिर्च का छौंका देते हुए कहा.."बस सर ही हिला रही है शुभा, सोच ही रखा होगा सब कहेंगे तो सुन के रह जाउंगी... सब की भली भी बन ले और कुछ करना भी नहीं है... अरे पॉच साल की बिटिया हो गयी अब किस बात का इंतज़ार है... सरकार भी कहती है अगला बच्चा तीन साल बाद.. तो अब क्या तुझे निमंत्रण दें, पिछली बार आयी थी तब भी तुझे समझाया था... मगर तेरे कानों पे जूं ही नहीं रेंगती... अरे अब तो कल्याणी भाभी भी बीमार रहने लगीं हैं..." शुभा का दिमाग सही जवाब की तलाश में था मगर गरम होते माहौल में उसकी सारी practical thinking धुआं धुंआ हो गयी। सुभद्रा बुआजी हैं ही ऐसी... सच्ची तीखी मिर्ची। अब तो उन्होंने महफ़िल में आग लगा दी थी और अब तो धमाका होना ही था। शुभा की सांसें थम गयीं थी... ऐसे वक़्त पे जतिन क्यों नहीं होते... नहीं वो कुछ करेंगे या कहेंगे नहीं मगर खुद देख और सुन तो लेंगे की असल में परिवार वाले क्या क्या कहते हैं। मगर अफ़सोस जतिन थे ही नहीं। शुभा अभी ख्यालों में ही थी कि बातों के तापमान और तासीर दोनों गरम होने लगे थे। इतनी बातों के ज़ोर में सासुमाँ भी बोल पड़ीं,"और क्या, सही तो कह रहें हैं सब, अब तो बेटा शुभा सोच ही लो, अभी तो फिर भी हम चलते फिरते हैं हाथों हाथ पल जायेगा। बस एक बेटा  हो जाये तो तुम भी फ्री और हम भी निश्चिन्त हो जायेंगे"  बस शुभा के भीतर कुछ तपने सा लगा। और बातें तो होती ही जा रही थीं सो शुभा सिगड़ी से भट्टी और धीरे धीरे ज्वालामुखी में तब्दील हो रही थी। रिश्तों का एक पहला उसूल होता है... जो दूर के रिश्ते होते हैं उनकी बातें कम दिल दुखाती हैं मगर करीबियों के बातों के तीर सीधे दिल छल्ली कर जाते हैं। कुछ यही उस क्षण जब सासुमाँ ने अपनी टिप्पणी दी। रिश्तों का दूसरा उसूल है वफ़ादारी। जो रिश्ते वफ़ादार होते हैं उनकी गलतियाँ माफ़ हो जाती हैं मगर जो रिश्ते अहसानफ़रामोश और वेमुर्ऱवत होते हैं उनकी गुस़ताख़ियाँ माफ़ नहीं होतीं। सासुमाँ जो हाथों हाथ बच्चा पालने की बात कर रहीं थीं वो शुभा के मन पर टिस टिसाता एक पुराना नासूर था। 
ज्वालामुखी उफान पर था.... जो सासूमाँ बड़े सहज लहज़े में बच्चे का ललन पालन करने का दवा कर रहीं थीं उन्हों ने ज़रूरत के वक़्त बिलकुल भी सहयोग नहीं किया था। शुभा को रूमी के जन्म का लम्हा लम्हा अच्छे से याद था, बच्ची को पहली बार गोद में लेने से उसकी देखभाल तक,  ऑपरेशन के कारण शुभा की लाचारी से नई माँ की विचलित मनोस्तिथी तक.... सासुमाँ ने कहीं भी किसी भी तरह का सहयोग नहीं दिया। संयुक्त परिवार तो बस नाम का था रूमी की पूरी देखभाल शुभा अकेली ही संभालती। वो वक्त शुभा कभी भूल नहीं सकती। जिस वक्त सबसे ज्यादा ज़रूरत थी तब सासुमाँ शुभा के saath क्या पास भी नहीं थीं और आज वो अगले बच्चे को पालने की दावा कर रहीं थीं। सोच कर भी शुभा का दिल जलता था। बड़ी आहत हुई थी शुभा जब सासुमाँ ने उसे नाउम्मीद
मगर आज वो पूरी तरह से टूट गई। ऐसा छलावा.. ...
सो शुभा नाराज़ थी मगर घर में किसी को इस बात या इसकी वज़ह से सरोकार न था।
बच्चे की फ़रमाइश के ताने हर घर में होते हैं, कहीं पहले तो कहीं दूसरे बच्चे के लिए और चाहे कोई कितना भी झुठलाए अकसर ये ताने अकसर लड़के के ल्ए ही होते हैं। मगर गौरतलब है कि परिवार के सहयोगी होने पर भी बच्चे की जिम्मेदारी का दारोमदार माँ पर ही आता है। बच्चे को 9 महीने गर्भ मे रखना, उसे जन्म देना और फिर जीवन भर बच्चे की छोटी बड़ी ज़रूरतों के लिए क्रियांवित रहना माँ की ही झोली में आता है। तो मूल रूप से देखें तो एक बच्चा औरत की जिंदगी बदल देता है और
  P.S : HER BODY,HER CHOICE,HER DECISION
 bchhe ko duniya me laane ka decision sirf ek ma ka hi hona chahiye ...bhale hi puraa pariwaarya bachhe ke father mil ke smbhaal lenge ya smbhaal lnge ka daawa karta rhe lekin bachhe ko bada karne aur acha insaan bnane me jo care, love, sacrifices (peak time of career, freedom, health and sleep compromises, etc..etc) affection, aur zarurat padne par Jis strictness aur discipline ki zarurat padti hai vo sirf ek maa hi balance kar sakti hai.....thats why society and family ke pressure me aake bachhe to kr leti h magar agar puri tarak prepared nahi ho to kya vo maa apne bachhe ko vo balanced lyf de payegi jo vo dena chahti the..........mere khayaal se nahi kyunki jo aurat andar apne mann se khush nahi hai bachhe ko leke, vo use nanhi si jaan ko  kaise achhi zindagi de sakegi? Isi liye daawe aur dhakosle na karen. Pressure na banayen.  Ma banana aurat ke liye sabse bhavnatamak anubhav hota h. Iske liye aurat ko sharirik aur mansik taur par tayaar hona bahut zaruri h. Jis badlav ke daur se ek ma guzarti h us badlav ka faisla uska khud ka hona chahiye. 
Ma kab banana h, kaise banana h, kitna fakr chahiye baccho me,  kitna waqt chahiye shadi aur bachche ke beech,  dusra bachcha chahiye y nahi. ..  Ye sab faisle har aurat ko khud lene ka haq h aur kisi ke bhi sath hone ya na hone se ye faisle aur unke parinam badalte nahi... . Kyunki ma banane ka pura tazurba bahut mushkil bhara h.....  Ant me bas ek gaane ki pankti.... 

Tum Saath Ho Ya Na
Ho Kya Fark Hai
Bedard Thi Zindagi Bedard Hai

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