माँ का साथ
आज कहानी नहीं... कहानियां हैं... छोटे छोटे किस्से हैं एक माँ और उसकी नन्हीं बिटिया के। किस्से उनके प्यार के... तकरार के...और इस कहानी का मुख्या किरदार है स्कूल। ये कहानी जीवन के आईने से निकाल कर लायी हूँ जिसमें एक माँ की कश्मकश है... उम्मीद करतीं हुँ इस कहानी से हर नयी माँ को कुछ सीखने मिले। तो कहानी है स्वरा और उसकी बिटिया ध्वनि की....
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दिन का खाली वक़्त था और स्वरा अपनी बेटी ध्वनि के साथ खेल रही थी। थकान से कुछ ऑंखें बंद सी हो रही थी मगर ध्वनि की आँखों से नींद नदारद थी। वो तो अपनी चहलकदमी में मग्न थी। सारे खिलौने फैला रखे थे और उनमे कभी रंग बताती तो कभी आकार। अभी तो अपने दूसरे जन्म दिन से भी २ महीने दूर थी मगर ध्वनि बहुत कुछ बोल लेती थी। ABC, 123, colors, animals, shapes सब बता लेती थी। अपना नाम और पापा का नाम भी कह लेती। स्वरा बड़ा गर्व महसूस करती और सारा दिन उससे यही सब पूछती। उसे बड़ा उत्साह होता, कभी फोटो खींचती, कभी आवाज़ रिकॉर्ड करती और कभी विडिओ बना कर ध्वनि की गतिविधियों को संजोने की कोशिश करती। रोज़ नए खेल होते, कभी shapes में पराठे बनाती तो कभी रंग बिरंगा खाना। कभी कपड़ों में रंग पहेली होती तो कभी यहाँ वहां लिखे अक्षर पढ़ाती। स्वरा और ध्वनि की हर गतिविधि में कुछ सीखना सीखाना चलता रहता। हर बार जब ध्वनि कुछ नया बोलती तो स्वरा बड़ी खुश होती और लपक कर नन्हीं ध्वनि को बाँहों में भर लेती। यही सोचती की कैसे बड़ी हो गयी.... स्वरा भी हर कोशिश करती की बिटिया की "पढाई" में कोई कमी न हो। उसे सच में लगता की बिटिया की पढ़ाई अहम है और सारे जोड़ तोड़ लगाती। व्यंगात्मक ही तो है इतनी नन्ही सी बच्ची की क्या पढ़ाई और क्या रूटीन। घरवाले हँसते मगर स्वरा बड़ी सीरियस थी इस विषय पर।
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ढाई साल की होने को थी ध्वनि और स्वरा को अपनी आगामी ज़िम्मेदारी का अहसास था। अब वक़्त था बिटिया तो स्कूल भेजने का। स्वरा का उत्साह और तनाव अपने परचम पर था। उसे बड़ी फ़िक्र थी की ध्वनि स्कूल पहुंचे तो वो perfect हो... उसने ध्वनि की ट्रेनिंग भी करनी शुरू कर दी थी कि स्कूल के वातावरण से ध्वनि घबराये नहीं। घरवाले इसे ध्वनि पर दवाब डालना कहते मगर स्वरा इसे लाज़मी समझती। धीरे धीरे admission form का वक़्त भी आ गया। स्वरा ने admission के लिए कौतुहल मचाना शुरू किया। मगर न पति सोमेश सुनते न ससुर जी। बड़ी जिरह कर के ये जाना की मोह बंधन के बंधे पापा और दादा ध्वनि को खुद से दूर भेजने को त्यार नहीं थे। स्वरा ने सारे तर्क वितर्क किये और आपनी जिम्मेदारी पर बिटिया के स्कूल के कार्यवाही शुरू कर दी। छिन छिन दिन करीब आने लगे और परिवार का प्रतिरोध बढ़ने लगा। ध्वनि को स्कूल न भेजने के रोज़ नए तर्क निकलते और रोज़ स्वरा तर्क वितर्क करती। वक़्त के साथ विरोध बढ़ने लगा मगर स्वरा और भी ज्यादा ढृढ़ होती गयी। स्वरा ने तय कर ही लिया था की उसे अपनी बच्ची की पढाई को संजीदा लेना है और इस सिलसिले में सख्त बनाना ही पड़ेगा। आखिर धवनि के लिए जिस चीज़ को स्वरा ने इतना महत्वपूर्ण बनाया उसे एक ही झटके में गैरज़रूरी कैसे कह सकती थी। स्वरा ने अपनी जिरह और तर्क वितर्क जारी रखे और नियत दिन पर सबकी मर्ज़ी के खिलाफ धवनि को स्कूल भी भेजा। ये जीत स्वरा की नहीं धवनि की थी। ये जीत हर बेटी के विश्वाश की थी।
पुनश्च : अपनी नन्ही कलियों के जीवन का आधार बने। बड़ी मामूली सी बात है मगर माँ का साथ है तो हर मुश्किल आसान है। बिटिया और खुद को भी इतना STRONG बनाएं कि ज़िन्दगी खुद सलाम करे और सारी खुशियां सुनहरी तश्तरी में ला परोसे।
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दिन का खाली वक़्त था और स्वरा अपनी बेटी ध्वनि के साथ खेल रही थी। थकान से कुछ ऑंखें बंद सी हो रही थी मगर ध्वनि की आँखों से नींद नदारद थी। वो तो अपनी चहलकदमी में मग्न थी। सारे खिलौने फैला रखे थे और उनमे कभी रंग बताती तो कभी आकार। अभी तो अपने दूसरे जन्म दिन से भी २ महीने दूर थी मगर ध्वनि बहुत कुछ बोल लेती थी। ABC, 123, colors, animals, shapes सब बता लेती थी। अपना नाम और पापा का नाम भी कह लेती। स्वरा बड़ा गर्व महसूस करती और सारा दिन उससे यही सब पूछती। उसे बड़ा उत्साह होता, कभी फोटो खींचती, कभी आवाज़ रिकॉर्ड करती और कभी विडिओ बना कर ध्वनि की गतिविधियों को संजोने की कोशिश करती। रोज़ नए खेल होते, कभी shapes में पराठे बनाती तो कभी रंग बिरंगा खाना। कभी कपड़ों में रंग पहेली होती तो कभी यहाँ वहां लिखे अक्षर पढ़ाती। स्वरा और ध्वनि की हर गतिविधि में कुछ सीखना सीखाना चलता रहता। हर बार जब ध्वनि कुछ नया बोलती तो स्वरा बड़ी खुश होती और लपक कर नन्हीं ध्वनि को बाँहों में भर लेती। यही सोचती की कैसे बड़ी हो गयी.... स्वरा भी हर कोशिश करती की बिटिया की "पढाई" में कोई कमी न हो। उसे सच में लगता की बिटिया की पढ़ाई अहम है और सारे जोड़ तोड़ लगाती। व्यंगात्मक ही तो है इतनी नन्ही सी बच्ची की क्या पढ़ाई और क्या रूटीन। घरवाले हँसते मगर स्वरा बड़ी सीरियस थी इस विषय पर।
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ढाई साल की होने को थी ध्वनि और स्वरा को अपनी आगामी ज़िम्मेदारी का अहसास था। अब वक़्त था बिटिया तो स्कूल भेजने का। स्वरा का उत्साह और तनाव अपने परचम पर था। उसे बड़ी फ़िक्र थी की ध्वनि स्कूल पहुंचे तो वो perfect हो... उसने ध्वनि की ट्रेनिंग भी करनी शुरू कर दी थी कि स्कूल के वातावरण से ध्वनि घबराये नहीं। घरवाले इसे ध्वनि पर दवाब डालना कहते मगर स्वरा इसे लाज़मी समझती। धीरे धीरे admission form का वक़्त भी आ गया। स्वरा ने admission के लिए कौतुहल मचाना शुरू किया। मगर न पति सोमेश सुनते न ससुर जी। बड़ी जिरह कर के ये जाना की मोह बंधन के बंधे पापा और दादा ध्वनि को खुद से दूर भेजने को त्यार नहीं थे। स्वरा ने सारे तर्क वितर्क किये और आपनी जिम्मेदारी पर बिटिया के स्कूल के कार्यवाही शुरू कर दी। छिन छिन दिन करीब आने लगे और परिवार का प्रतिरोध बढ़ने लगा। ध्वनि को स्कूल न भेजने के रोज़ नए तर्क निकलते और रोज़ स्वरा तर्क वितर्क करती। वक़्त के साथ विरोध बढ़ने लगा मगर स्वरा और भी ज्यादा ढृढ़ होती गयी। स्वरा ने तय कर ही लिया था की उसे अपनी बच्ची की पढाई को संजीदा लेना है और इस सिलसिले में सख्त बनाना ही पड़ेगा। आखिर धवनि के लिए जिस चीज़ को स्वरा ने इतना महत्वपूर्ण बनाया उसे एक ही झटके में गैरज़रूरी कैसे कह सकती थी। स्वरा ने अपनी जिरह और तर्क वितर्क जारी रखे और नियत दिन पर सबकी मर्ज़ी के खिलाफ धवनि को स्कूल भी भेजा। ये जीत स्वरा की नहीं धवनि की थी। ये जीत हर बेटी के विश्वाश की थी।
पुनश्च : अपनी नन्ही कलियों के जीवन का आधार बने। बड़ी मामूली सी बात है मगर माँ का साथ है तो हर मुश्किल आसान है। बिटिया और खुद को भी इतना STRONG बनाएं कि ज़िन्दगी खुद सलाम करे और सारी खुशियां सुनहरी तश्तरी में ला परोसे।
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