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Showing posts from May, 2018
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वो विधवा थी पर श्रृंगार ऐसा कर के रखती थी कि पूछो मत। बिंदी के सिवाय सब कुछ लगाती थी। पूरी कॉलोनी में उनके चर्चे थे। उनका एक बेटा भी था जो अभी नौंवी कक्षा में था। पति रेलवे में थे उनके गुजर जाने के बाद रेलवे ने उन्हें एक छोटी से नौकरी दे दी थी। उनके जलवे अलग ही थे। 1980 के दशक में बॉय कटिंग रखती थी। सभी कालोनी की आंटियां उन्हें 'परकटी' कहती थी। 'गोपाल' भी उस समय नया नया जवान हुआ था। अभी 16 साल का ही था। लेकिन घर बसाने के सपने देखने शुरू कर दिए थे। गोपाल का आधा दिन आईने के सामने गुजरता था और बाकि आधा परकटी आंटी की गली के चक्कर काटने में। गोपाल का नवव्यस्क मस्तिष्क इस मामले में काम नहीं करता था कि समाज क्या कहेगा? यदि उसके दिल की बात किसी को मालूम हो गई तो? उसे किसी की परवाह नहीं थी। परकटी आंटी को दिन में एक बार देखना उसका जूनून था। उस दिन बारिश अच्छी हुई थी। गोपाल स्कूल से लौट रहा था। साइकिल पर ख्वाबो में गुम उसे पता ही नहीं लगा कि अगले मोड़ पर कीचड़ की वजह से कितनी फिसलन थी। अगले ही क्षण जैसे ही वह अगले मोड़ पर मुड़ा साइकिल फिसल गई और गोपाल नीचे। उसी वक्त सामने स...
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आज एक कहानी से शुरू करते हैं... एक कहानी जो मेरे पापा मुझे सुनाया करते थे.... कहानी है एक चित्रकार की जिसने एक चित्र बनाया और लोगों की राय जानने के लिए उसे शहर के चौक पर रख दिया। चित्रकार ने अपने बनाए चित्र के साथ एक कागज़ और कलम भी रखी जिसमें लोग अपनी राय लिख सकते थे। सुबह से शाम हुई और चित्रकार बड़ी उत्सुकता से उस कागज़ को पढ़ने लगा, मगर उसे मायूसी हासिल हुई। चित्रकार ने उम्मीद की थी तारीफ़ और गुणगान की मगर वह कागज़ तो शिकायतों और गलतियों से भरा था। कोई रंग से नाखुश था तो कोई रंखांकन से,  किसी को बनावट से शिकायत थी तो कोई विषयवस्तु से ही गिला रखता था। चित्रकार बड़ा निराश हुआ मगर उसने हार नहीं मानी। वह फिर से लग गया और  लोगों  की सलाह शिकायत के अनुसार दोबारा चित्र बनाने लगा। उसने हर सुधार किया और इस बार एक नायाब चित्र बनाया। और लोगों की राय जानने के लिए उसे शहर के चौक पर रख दिया। शाम को जब चित्रकार कागज़ को देखता है तो फिर वही,  कमियों की लम्बी सूची पाता है। जिस चित्र में उसने अपनी जान डाल दी लोगों को उसमें ब स त्रुटियाँ ही नज़र आईं। चित्रकार दुखी तो था किन्तु...
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आज मदर्स डे है...हीना आज का दिन माँ के लिए खा़स बनाना चाहती थी। उसने हफ्तों से इसकी तैयारी की थी।आज वो माँ को हर काम हाथों हाथ कर के देना चाहती थी। एक राजशाही दिन। माँ बस ठाठ से लुत्फ ले। सुबह की चाय से लेकर माँ के छोटे बड़े हर काम हीना खुद कर रही थी। बड़े करीने से वो माँ की हर बात हर काम की बखूबी नकल कर रही थी। शाम को माँ के लिए पार्टी और तोहफ़ा भी था। मगर हीना को यकीन था माँ सबसे ज्यादा खुश इस राजशाही दिन से ही होगी। हीना का सारा दिन हवा हो कर निकल गया और रात की पार्टी भी हो गई। हीना थक कर चूर थी, बस माँ की गोद में सोना चाहती थी। मगर माँ से अभी ये जानना था कि मदर्स डे माँ को कैसा लगा? नींद भरी आवाज़ में हीना ने माँ से अपना सवाल किया। उसे यकीन था कि माँ का जवाब सुन कर उसे चैन की नींद आजाएगी आखिर इतनी मेहनत की थी उसने। मगर माँ का जवाब हीना को जगा गया..... नींद से भी और विचार से भी। माँ ने कहा....."मदर्स डे खत्म और हमारे लिए सब पहले जैसा,  एक दिन हमारा हाथ बटा कर हमें खुश करने की उम्मीद कैसे कर सकरती हो तुम।"  हीना स्तब्ध रह गई जिस दिनचर्या से वह एक ही दिन में लस्त हो...
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किसी की बीवी होना बड़ा ही मुश्किल औहदा है।  बात रिश्ते की नहीं, बात है रिश्ते से जुडी कड़ियों और उनसे जुडी जिम्मेदारियों की।हमारी संस्कृति के अनुसार बीवी होने का अर्थ है अर्धांगिनी होना।  यानी आधा अंग... और ये अर्थ जीवन के हर पहलु में सार्थक है।  मगर वास्तविकता कुछ और ही होती है। अक्सर  हमारे परिवारों में घर, परिवार, बच्चे सम्भालना बीवी की ज़िम्मेदारी होती है।  जिस घर को, जिस परिवार को जिन बच्चों को पति पत्नी साथ मिल कर बनाते हैं उसे सुचारु रूप से चलाने का सारा दर-ओ -मदार सिर्फ बीवी पर ही क्यों आ जाता है। और इन सब पे सबसे बड़ी कौतुक की बात ये है इन अनंत जिम्मेदायिओं को बखूबी निभाने के बावजूद भी हर बीवी इसी टैग लाइन से जूझती है कि ... "आखिर करती क्या हो" इसी लिए किसी की बीवी बड़ा ही मुश्किल औहदा है। जिसे हम आशियाना समझ कर चलते हैं वो असल में एक पिंजरा है, बस किसी का सोने का पिंजरा है तो किसी का लोहे का, किसी के  पिंजरे का तना बना इंसानी हाथों से सजा है तो किसी का सोने चांदी नोंटो से। किसी का पिंजरा ख्यालों का है तो कि...
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जिंदगी मुश्किल है। किसी खतरनाक खेल जैसी जहाँ जान का जोखिम भी है और खेलना लाज़मी भी। हर पड़ाव पर चंद खुशियों के पल समेटने में जान लग जाती है। सवेरे की हड़बड़ाहट से रात के छुटपुट कामों तक हर पल एक जदोजहत सी है ये जिंदगी। इतना जूझना पड़े तो दर्द के बच पाना मुश्किल है।  कभी कुछ मेहमानों की खातिरदारी का दर्द, कभी बच्चों के संग खेल का दर्द, कभी काम वाली बाई के न आने से काम करने का दर्द, कभी कपड़ों की धुलाई का दर्द, कभी बाजार में खरीदारी का दर्द, कभी सैर सपाटे और सफर का दर्द, कभी रात भर जागने का दर्द, कभी दिन भर चलने का दर्द ...... ये दर्द भी.... कभी न कभी कैसे न कैसे कर के आ ही जाता है। बस कुछ नहीं आता तो वो है सुकून का लम्हा.... दर्द हो न हो... राहत हो न हो.... निरंतर चलन ही जिंदगी है।  तो अब इस दर्द का क्या इलाज है। मुश्किल जिंदगी में स्वस्थ्य बड़ा सस्ता हो गया है और स्वस्थ्य सेवाएं महंगी।  इलजा हो हर मर्ज़ और हर दर्द का है मगर इलाज सोने की मोहरों के बदले आता है और ये कई और नए दर्द दे जाता है।  सब बातें और सब ज्ञान अपनी जगह लेकिन सुबह से रात की हमारी ...