Posts

स्पेशल नवरात्रे

Image
साल का वो महत्वपूर्ण समय आ चुका है जब हमारे मन में स्त्री शक्ति के प्रति श्रद्धा, भक्ति और सम्मान सब एक ही साथ और पूरे उफान से जाग उठता है। सही समझ रहे हैं आप... "माता के नवरात्रे " आ गए हैं और सब माता के स्वागत सत्कार में जुट गए हैं। मगर मैं शायद कुछ फुर्सत में हूँ (ऐसा नहीं है की माता के नौ दिनों की तैयारी का कार्यभार मुझपर कुछ कम है) कि आज बड़े दिनों बाद अपने पाठकों से मुख़ातिब हुयी हूँ। अब यूँ कि इतने दिनों से जिंदगी कुछ अहम सबक सीख रही थी सो आज सोचा आप सब से भी उन्हें साझा कर लूँ। अब नवरात्रों का ज़िक्र इस लिए किया कि आपके फ़ोन और कंप्यूटर के सभी सोशल मीडिया ऍप्स पर माता रानी और उनके पूजन से जुडी बहुत सारे पोस्ट्स आपके पास आने ही लगे होंगे। किन्ही में नारी को शक्ति का रूप कहा गया होगा, तो किन्ही में देवी। कुल मिला कर ये नौ दिन सिर्फ माता रानी के सम्मान के दिन ही नहीं हैं बल्कि इन दिनों में औरतों के प्रति भी काफ़ी सत्कार व्यक्त किया जाता है। मैं यहाँ ऐसी कोई बात नहीं करने वाली हूँ। बल्कि मैं तो नौ दिनों के नौ सबक आपके साथ बाँटना चाहती हूँ जो इन नौ के बाद भी आप...

माँ का साथ

आज कहानी नहीं... कहानियां हैं... छोटे छोटे किस्से हैं एक माँ और उसकी नन्हीं बिटिया के। किस्से उनके प्यार के... तकरार के...और इस कहानी का मुख्या किरदार है स्कूल। ये कहानी जीवन के आईने से निकाल कर लायी हूँ जिसमें एक माँ की कश्मकश है... उम्मीद करतीं हुँ इस कहानी से हर नयी माँ को कुछ सीखने मिले। तो कहानी है स्वरा और उसकी बिटिया ध्वनि की....                                                   --------******-----1-----******-------- दिन का खाली वक़्त था और स्वरा अपनी बेटी ध्वनि के साथ खेल रही थी। थकान से कुछ ऑंखें बंद सी हो रही थी मगर ध्वनि की आँखों से नींद नदारद थी। वो तो अपनी चहलकदमी में मग्न थी। सारे खिलौने फैला रखे थे और उनमे कभी रंग बताती तो कभी आकार। अभी तो अपने दूसरे जन्म दिन से भी २ महीने दूर थी मगर ध्वनि बहुत कुछ बोल लेती थी। ABC, 123, colors, animals, shapes सब बता लेती थी।  अपना नाम और पापा का नाम भी कह लेती। स्वरा बड़ा गर्व महसूस...

वो झल्ली

Image
उदिता को सब झल्ली कहा करते थे। बेफिक्री उसकी अदा थी। उसे आईने से प्यार न था और न ही वो खुद को निहारा करती। बल्कि किसी किसी रोज़ तो सारा दिन बीत जाता और उसे मालूम ही न होता की वो कैसी दिख रही है। ऐसा नहीं की उदिता को सजने सँवरने या खूबसूरत दिखने से गुरेज़ था। उसके भी वो निजी लम्हे थे जब वो एक लट संवारती, किसी साड़ी में खुद को देर तक निहारती, एक एक ज़ेवर से परवान चढ़ते श्रृंगार पर इठलाती, खुले बालों के रेश्मी अहसासों में खो जाती। बस दिल न रमता उसका श्रृंगार में। यूँ न था की रोज़ खुद को गुड़िया सा सजा कर आईने से बातें करे। उदिता बड़ी निर्मोही सी थी...  मन अच्छा होता तो बिना किसी अवसर के भी सुसज्जित रहती और मन न हो तो तीज त्यौहार भी फीके निकाल दे। मन के प्रतिरूप में खुद को देखने दिखने वाली उदिता अक्सर अपनी इस प्रकृति से लोगों को झल्ली ही समझ आती। और उसे भी ये नाम जमता था.. क्यूंकि इस परिचय के बाद किसी को भी उम्मीद न रहती कि उदिता कभी अवसर अनुसार तैयार मिलेगी। पति मल्हार भी उदिता को उसके झल्ली स्वाभाव से ही जानते और सास अनुप्रिया भी अब उदिता के अंदाज़ की आदतन हो गयी थ...

मियाँ गुमसुम और बत्तो रानी

Image
अकसर कहानी से शीर्षक निकलते हैं मगर आज की कहानी शीर्षक से आती है। ये जुमला "मियाँ गुमसुम और बत्तो रानी" मुझे आज यूँ ही फ़ेसबुक की एक पोस्ट में दिख गया और किसी अपने की जिंदगी आँखों के सामने तैर गई। बस फिर क्या था..... कहने को किस्सा भी था और वो भी शीर्षक के साथ और कुछ खाली वक्त भी.....सो पेश है....."मियाँ गुमसुम और बत्तो रानी" तो बात शुरु होती है मोहल्ले की उस छत से जहाँ धूप कुछ ज्यादा आया करती थी। ठंड ज़ोरों पर थी और मोहल्ले की वो छत सबकी नियत बेइमान करती थी। सुबह से शाम तक जिस एक छत पर सूरज मेहऱबान रहा करता वो छत वर्मा जी की थी और इस बात का फ़क्र उनके चेहरे पर साफ़ दिखता था। दिन का जितना वक्त घर पर रहते वो सारा वर्मा और वर्माइन का छत पर बैठे धूप सेंकते बीतता। और छुट्टी के दिन तो यूँ लगता कि दोनों छत से चिपके ही हों। पुरानी दिल्ली की छतें थीं सो आपस में ताने-बाने सी जुड़ीं थीं। चाहें तो किसी भी छत पर जा सकते थे, वर्मा जी की छत पर भी, मगर मैं चार घरों के फासले से अपनी छत पर खड़ी वर्मा - वर्माइन को देखा करती। एक दिलचस्प बात थी उस नज़ारे की... एक ऐसी बात जो अमू...

फुर्सतें

Image
आज किचन में मन ही नहीं लग रहा..... कभी कुछ गिर जाता, तो कभी छूट जाता, कभी मसाला जल जाता तो कभी चाकू हाथ को लग जाता.... एक के बाद एक गलतियाँ हो रहीं थी... कनिका हताश हो कर बैठ गयी... मगर उसे इसकी मोहलत नहीं थी.... सबका टिफ़िन तैयार करना था और देर हो रही थी। कनिका ने खुद को संभाला और एकाग्र हो कर फिर काम में लग गयी और खुद से वादा किया की अपनी इस परेशानी के लिए खुद को वक़्त ज़रूर देगी मगर इस सब से निपटने के बाद। पिछले एक हफ्ते से यही हाल था... कनिका सारा वक़्त खोयी सी रहती थी। यूँ लगता था अतीत की गलियों में घूम रही हो... न जाने क्या क्या याद आता उसे... न जाने किस किस से टकरा जाती उन संकरी यादों की गलियों में। यूँ लगता सारा दिन किसी आत्ममंथन में हो, जैसे जीने की वजह तलाश रही हो। उसके हाथ तो कढ़ाई में सब्ज़ी चला रहे थे मगर अचानक यूँ लगा उसने धीमे से आके छुआ हो.... यादों के गलियारे से जतिन यका तक आँखों के सामने आके खड़ा हो गया... वही मुस्कुराती आँखें वही दिल लुभाता चेहरा... हौले से कनिका का हाथ थाम कर उसे बीते कल की यादों में लेकर जाने को ही था कि पलकों को फुरती...

वो पहला कदम....

Image
मानवी चुप चाप नन्ही सना के बालों को सहला रही थी। एक अंतहीन चुपी उसके लबों को सिए जाती थी। सना को बांहों में भर कर कुछ सुकुन सा मिलता था... यूँ लगता कुछ तो हासिल-ए-जिंदगी है। सच ही तो है, एक सना के अलावा था ही क्या मानवी के पास? वक्त और प्यार की कशमकश में सब जाता रहा। जब भी उठ खड़े होने की कोशिश की, हर बार कुछ उसे वापस पटक देता। कभी तर्क, कभी तकरार.... कभी प्यार, कभी वार.... कभी जिम्मेदारी, कभी वफादारी... कभी अपने, कभी अपनापन... सना के बाद मानवी के लिए अपने मैटरनिटी ब्रेक से निकल कर अपने कैरियर को दोबारा शुरू करना लगभग नामुमकिन सा था। एक तो मौके कम थे और शर्तें ज्यादा, ऊपर से सना को अभी मानवी की ज़रूरत थी। मानवी ने सना को अपनी दुनिया बना लिया और कुछ वक़्त के लिए सब से किनारा कर लिया। मगर ये वक़्त मानवी को काटने दौड़ता था। जो कुछ भी थोड़ा वक़्त बचता, मानवी उसे किसी तरह अपनी पढ़ाई से जुड़े रहने में बिताती। समय के साथ सना बड़ी होने लगी और मानवी का खाली वक़्त कुछ और बढ़ने लगा। अब मानवी कम वक़्त में हो सकने वाले छोटे मोटे रोज़गार में मन लगाने लगी कि कुछ आमद भी हो और वो दुनिया की दौड़ में शामिल ...
Image
EK Faisla - jo ek maa ka hq hai एक तूफ़ान था शुभा की दिल दिमाग में.... नाराज़ थी वो...  बहुत नाराज़। यूँ तो बात कुछ भी नहीं थी और बहुत कुछ भी। आज फिर साल के उन चंद दिनों में से एक दिन था जब शुभा के भीतर का ज्वालामुखी उफान पर था। घर में एक भयानक सी ख़ामोशी थी। ऐसे दिनों के अमूमन दो परिणाम हुआ करते थे.... एक, ज्वालामुखी का फटना और सब पर गुबार निकलना या दूसरा, लावा का भीतर भीतर खौलना और चंद दिन सबको परोक्ष रूप से तपा कर धीमे धीमे शांत और तटस्थ हो जाना। घर के लोग ज्वालामुखी के उफान का कारण भले ही न जानते हों मगर सबको पता था कि अब सबको जलना था.... प्रत्यक्ष या परोक्ष। और कारण का तो ऐसा है न कि, कोई जनता ही नहीं, कोई जानना नहीं चाहता, कोई जो जानता है वो समझता नहीं और कोई जो समझ सकता है वो जानता नहीं। कुल मिलाकर सबको पता था कि शुभा नाराज़ है बस कोई भी इस बारे में कुछ कर नहीं कर सकता था। और करता भी क्यों समस्या तो शुभा की थी...उसका निजी मसला, जैसा जतिन, उसके पति कहते थे। सो हुआ यूँ कि आज घर में एक पूजा थी और परिवार के कुछ रिश्तेदार आने थे। शुभा पहले से ही जानती थी की आज का मुद्दा...