"उफ्फ्फ! तुमसे तो बोलना ही फ़िज़ूल है। जब देखो लड़ने को तैयार रहती हो... कोई बात समझनी ही नहीं है बस सीधा लड़ाई का रास्ता आता है तुम्हे..." गुस्से में बड़बड़ाते हुए अधिराज कमरे से और फिर घर से बहार निकल गए... घर की ख़ामोशी में अकेली रह गयी मानसी सोचने लगी.... क्या मैं सच में लड़ रही थी...? मगर कुछ तो सच भी है... औरतें सारी जिंदगी लड़ती ही रहतीं हैं। माँ बाप से प्यार के लिए, स्कूल कालेज में सम्मान के लिए, पति से अधिकार के लिए, ससुराल मे अपनेपन के लिए, बच्चों से उनके ही भले के लिए, वक्त से राहत के लिए, उम्र से चाहत के लिए, खुद से मोहब्बत के लिए, ज़माने से समाज से रूढीवादी परमपराओ के बधंन से आजाद होने के लिए.... मानसी ख्यालों के दलदल में गहरी उतर रही थी... इस हर पल की लड़ाई का हासिल क्या था उसके हाथों में ? उसकी कद्र किसे थी.. सोच का सफर खुद से दूर चला तो उसे लगा यही हाल तो हर औरत का है... माँ, भाभी... सभी अपने आप को घर परिवार बच्चों, पति पर निश्छल भाव से वार देते है मगर उसके बदले हमारी ज़रूरतों और भावनाओं का ख्याल कोई नहीं रखता... औरत चाहे हाउसवाइफ हो या नौकरीपेशा.. घर की जिम्मेदार...